मैं देख रहा हूँ कि इन
दिनों सोशल साइटों पर ‘फेसबुकिया’ टाइप बक-बक करते हुए चंद नौजवान साथियों
ने अपनी-अपनी बुद्धि व सोच के आधार पर ‘हिन्दू धर्म’ की प्रकृति के सम्बन्ध में अपने-अपने राग अलापने शुरू कर दिये हैं। यह
सचमुच आश्चर्यजनक है कि अपने-अपने विचार व्यक्त करते हुए इन लोगों ने धर्म के नाम पर
जैसे ‘धर्मयुद्ध’ शुरू कर दिया है। अपने
नित्य प्रवचन के द्वारा ये लोग सतही जानकारी लोगों फैला कर खुद ही खुश हो रहे हैं। मुझे तो इनमें
से अधिकांश की सोच वर्तमान राजनीति से प्रेरित लगती है। उस राजनीति से जो ‘हिन्दू धर्म’ को अपने लक्ष्यों के अनुरूप परिभाषित
करना चाहती है। इनके सारे प्रवचनों में जो मार्क करने वाली बात है वो ये है ‘कि हम अच्छे है बाकी सब बेकार हैं।’ अरे भाई- खुद
को तो अच्छा सभी कह लेते हैं, दूसरों को अच्छा कहो, तो कुछ बात है। अब उन्हीं लोगों के नित्य प्रवचन को पढ़कर या सुनकर मैंने
कई लोगों के मुखारबिंदु से सुना कि- ‘हिन्दू धर्म’ कोई धार्मिक समुदाय ही नहीं है। यह तर्क है तो नितांत हास्यापद है। लेकिन
मैं भी उनकी जानकारी के 'अभाव' की दाद देने लगा। अब यार जानकारी की दाद तो सभी दे
लेते हैं लेकिन उसके ‘अभाव’ की भी दाद
देना जरूरी बनता हैं न।
तो मेरे प्यारे विद्वान दोस्तों
ज़रा नीचे भी पढ़ लो, हो सकता मेरी जानकारी आपके ‘अभाव’ को दीमक की तरह चाट जाए।
हिन्दू धर्म में अलौकिक शक्ति
की अवधारणा बहुस्तरीय हैं। इसकी शुरुआत होती है बहुदेववाद से, जिसमें
अलग-अलग देवी-देवताओं के अलग-अलग कार्यक्षेत्र है। मसलन ‘इन्द्र
जी’ वर्षा के देवता हैं तो ‘मारुति जी’ वायु के देवता हैं। शक्ति की प्रतीक ‘माँ दुर्गा’ हैं तो ‘माँ सरस्वती’ ज्ञान
की देवी। यहाँ तक कि सेक्स-सम्बन्धी मामलों का भी एक अलग देवता ‘कामदेव जी’ हैं। इसके ऊपर का स्तर त्रिदेववाद का है, जहां ‘ब्रम्हा जी’ सृष्टि के
निर्माता हैं, तो ‘विष्णु जी’ पालनहार, और ‘शिव जी’ विनाशक हैं। तीसरे स्तर पर एकेश्वरवाद है, जिसमें
केवल एक ईश्वर की परिकल्पना है। वायु पुत्र ‘हनुमान जी’ भी एक पौराणिक चरित्र हैं, ‘राम
जी’ के सेवक। उन्हें भी भगवान का दर्जा प्राप्त है।
ये सारी अवधारणाएँ ‘हिन्दू
धर्म’ का भाग हैं। ‘हिन्दू धर्म’ के अलग-अलग पंथ, अलग-अलग देवताओं की आराधना करते
हैं। इनमें से कुछ ‘विष्णु जी’ के
अवतार हैं जैसे ‘राम’ और ‘कृष्ण’। ऐसा ही, यूनानी धर्मशास्त्र
में भी कुछ इसी तरह का बहुदेववाद पढ़ने को मिलता है। ‘ईसाई
धर्म’ में ‘पिता-पुत्र और पवित्र आत्मा
का त्रिदेववाद प्रचलित है। ये सभी मान्यताएँ धर्म-विशेष से जुड़ी हुई हैं और इतर
धर्मों पर लागू नहीं होती। हम जानतें हैं कि बौद्ध व जैन जैसे कुछ धर्मों में अलौकिक
शक्तियों पर विश्वास नहीं किया जाता। भारत में विकसित कुछ और धार्मिक परम्पराओं
जैसे ‘चवार्क’ की भी अलौकिक शक्तियों
में आस्था नहीं थी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि
हिन्दू धर्म में विभिन्न धाराएं हैं परन्तु इसका कारण यह है कि इस धर्म का कोई एक
पैगम्बर नहीं है। यह धर्म किस्तों में, एक लंबे अंतराल में, अस्तित्व में आया है। इसलिए
इस धर्म में विभिन्नतायें तो हैं परन्तु ये विभिन्नतायें हमें यह इजाज़त कदापि नहीं
देतीं कि हम इसे एक धर्म ही न मानें। इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘हिन्दू
धर्म’ कि कोई सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है। इसके कई कारण
हैं, पहला यह कि इस धर्म का कोई एक जन्मदाता नहीं है। दूसरा
यह कि दुनिया के इस भू-भाग में उभरे विभिन्न धर्मों को ‘हिन्दू
धर्म’ का हिस्सा मान लिया गया है और तीसरे, ‘हिन्दू धर्म’ में इतनी
विभिन्नतायें है कि उसे एक झंडे-तले रखना मुश्किल प्रतीत होता है। विशेष बात यह है
कि अलग-अलग समय में स्थापित परम्परायें और कर्मकाण्ड, आज भी
इस धर्म का हिस्सा बने हुए हैं। भगवान ‘सत्यनारायण’ से लेकर ‘माँ संतोषी’ और ‘माँ दुर्गा’ से लेकर निराकार,
निर्गुण ईश्वर तक कि परिकल्पनायें इस धर्म में एक साथ जीवित हैं। यहाँ तक कि ‘चावर्क दर्शन’ और ‘लोकायत
दर्शन’ भी यहीं मौजूद हैं।
‘हिन्दू
धर्म’ जिस मामले में अन्य धर्मों से भिन्न है वह है उसकी
जाति व्यवस्था। यह धर्म सामाजिक ऊंच-नीच को धार्मिक स्वीकार्यता प्रदान करता है।
जाति व्यवस्था को ‘हिन्दू धर्म’ के ग्रंथों और उसकी परम्पराओं व रीति-रिवाज़ों में
स्वीकृति प्राप्त है। जिन परिस्थितियों में यह व्यवस्था अस्तित्व में आयी, उनसे भी
हमें इसे समझने में मदद मिलती है। आर्य, जो कई दौरों में भारत आये, पशुपालक और
बहुदेववादी थे। शुरुआती दौर में वेद रचे गए, जो तत्कालीन समाज़ के मूल्यों की झलक हमें
दिखलाते हैं। वह बहुदेववाद का युग था और उस समय ऐसा माना गया अलग-अलग देवताओं के
पास अपने-अपने विभाग थे। मनु के नियम समाज के पथपदर्शक थे। वैदिक युग के बाद आया,
ब्राह्मणवाद का युग, जिसमें समाज़ बाहरी प्रभावों से दूर रहा। जाति व्यवस्था के
चलते, समाज़ का अभिजात्य वर्ग को सामान्य जनों से दूरी बनाने में जाति व्यवस्था ने
मदद की। इसके बाद, जाति व्यवस्था को बौद्ध धर्म की चुनौती ने ब्राह्मणवाद को बदलने
पर मज़बूर किया और उसके नतीजे में यह अस्तित्व में आया, जिसे हम आज ‘हिन्दू धर्म’
कहते हैं। इस दौर में पंथिक प्रथाओं के निर्वहन में आमजनों को भी शामिल किया गया
और सार्वजनिक कर्मकाण्डों और अनुष्ठानों का सिलसिला प्रारम्भ किया गया ताकि आम
लोगों को बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होने से रोका जा सके। यह दिलचस्प है कि आठवीं
शताब्दी तक, तथाकथित हिंदु ग्रन्थों में, हिन्दू शब्द का कहीं प्रयोग नहीं किया गया है। यह शब्द तो अरब निवासियों और
मध्य-पूर्व के मुसलमानों के इस भू-भाग पर आगमन के बाद अस्तित्व में आया है। ये
सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को ‘हिन्दू’ कहने लगे थे। प्रारम्भ में ‘हिन्दू’ शब्द का भौगोलिक अर्थ था। इसके बाद, इस क्षेत्र में
विकसित हो रहे धर्मों को हिन्दू धर्मों की संज्ञा दी गयी। जाति व्यवस्था के कारण, हिन्दू धर्म में धर्म प्रचार के लिए कोई स्थान नहीं था। उल्टे, जाति व्यवस्था के पीड़ितों ने बौद्ध, इस्लाम और बाद
में ईसाई व सिख धर्मों को अपनाने की हर संभव कोशिश की। हिन्दू धर्म में भी दो
धाराएं स्पष्ट नज़र आती हैं – ब्राह्मणवादी और श्रमण परंपरा। श्रमण परंपरा ने जाति
व्यवस्था को ख़ारिज किया और ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध। ब्राह्मणवाद का
प्रभुत्व बना रहा परन्तु साथ ही, अन्य धाराएं जैसे तंत्र, भक्ति, शैव, सिद्धांत आदि का
अस्तित्व भी बना रहा। श्रमण परंपरा ने वैदिक नियमों और मूल्यों को तरजीह नहीं दी।
जहां ब्राह्मणवाद, समाज को जातियों के खांचों में बांटता था, वहीं श्रमणवादी इस विभाजन के विरोधी थे। ब्राह्मणवाद हिन्दू धर्म की
प्रधान धारा इसलिए बना रहा क्योंकि उसे राज्याश्रय मिला। कालांतर में, नीची जातियों की धार्मिक परंपराओं को नकार कर,
ब्राह्मणवाद को ही हिन्दू धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया गया। यह प्रक्रिया, मगध-मौर्य साम्राज्य के दौरान बौद्ध व जैन धर्मों के दमन के बाद शुरू
हुई। बाद में अंग्रेजों ने भारतीय समाज को समझने के अपने प्रयास के चलते सभी
गैर-ईसाई व गैर-मुसलमानों को, ब्राह्मणवादी मानदंडों पर आधारित, ‘हिन्दू’ पहचान दे दी। वेदों
व अन्य ब्राह्मणवादी ग्रंथों को हिन्दू ग्रंथ कहा जाने लगा। इस प्रकार हिन्दू धर्म
में निहित विभिन्नताओं को परे रखकर, केवल ब्राह्मणवाद को
हिन्दू धर्म का दर्ज़ा दे दिया गया। जिसे हम आज हिन्दू धर्म कहते हैं, दरअसल वह, ब्राह्मणवादी कर्मकांडों, ग्रंथों व ब्राह्मणों की सत्ता पर आधारित है। वर्तमान हिन्दू धर्म, धर्म के सभी समाजशास्त्रीय मानदंडों पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि
उस पर ब्राह्मणवाद का वर्चस्व है अब कुछ लोगों का यह कहना कि ‘हिन्दू धर्म’ कोई धार्मिक समुदाय नहीं है, पूरी तरह से गलत है।