ढाबे पर बैठे-बैठे खामोशी बहुत लंबी हो चली थी। अब ऊब भरी उकताहट न पसर जाये लिहाजा प्रतिभा ने पहले बोलना उचित समझा।
"तो... अगले हफ्ते मैं कोलकाता जा रही हूं..."
प्रशांत वैसे ही जड़वत बैठा रहा। जैसे कुछ सुना ही नहीं।
"मैं कुछ कह रही हूं..."
"अरे सुना...! मगर रोक भी तो नहीं सकता...!"
"फिर ठीक है... मुझे लगा शायद यहां पर होकर भी नहीं हो..."
"हां, मैं सोच रहा था मुझे क्या करना चाहिए?"
"मेरी मानो तुम भी कोलकाता निकल चलो। वैसे भी गांव में धूल, मिट्टी, उकताहट के सिवाय है क्या?"
"और बेरोजगारी भी..." उसने जोड़ा।
"हां वो तो है ही...!"
"अब ठीक है...! मगर मैं अभी नहीं जा रहा...!"
"खैर चलते तो हफ्ते दो हफ्ते में मिलना ही हो जाता..." कहकर वो मुस्कुराई।
प्रशांत ने प्रतिभा की आंखों में देखा शायद कोई भाव पकड़ में आ जाये मगर वहां कुछ भी ऐसा न था जिस पर ठहरकर सोचा जाये।"
"क्या देख रहे हो?"
"यही कि वक्त कितनी जल्दी बदल जाता है..."
"तुम रोकना भी तो नही चाहते।"
"वक्त हमारे घर में मेहमान होता तो शायद...! खैर... चाय पियोगी?
उसने जेब टटोली। मात्र पांच रुपये थे...
"छोटू जरा एक चाय देना"
उसने लड़के को आवाज दी।
"जी लाया...!"
"एक चाय...! तुम नहीं पियोगे क्या?"
"नहीं..."
"पैसे मैं दे दूंगी।"
"ऐसी बात नहीं है।"
छोटू चाय लेकर आ गया।
"सुन भाई... ये गिलास यहां रख दे... और एक चम्मच नमक के साथ एक गिलास भी ले आ...!"
"नमक...?"
छोटू ने उसे ऐसे देखा जैसे कोई अजूबी चीज मांग ली हो।
"हां भाई काम है...!"
"ठीक है लाता हूं..."
"तुम नमक क्या करोगे?" प्रतिभा हैरान थी।
उसने फिर से प्रतिभा की आंखों में झांका। यहाँ कुछ भी तो नहीं... आखिर बार-बार क्या पढ़ना चाहता है वो? उसे खुद पर ही कोफ़्त हुई।
छोटू उसे एक पुड़िया में नमक और एक गिलास दे गया। उसने मेज पर रखे जग का पानी गिलास में उड़ेला। फिर नमक डाल कर हिलाने लगा।
"क्या कर रहे हो?" प्रतिभा उकताने लगी।
उसका सारा ध्यान नमक को घोलने पर था।
प्रतिभा उसे बड़े गौर से देखती रही।
उसने गिलास होठों से लगाया और गट-गट पी गया। खों... खों... खों... SSSSS
नमक जैसे गले में फंस गया था। उसकी आंखें पनीली हो गयीं।
"तुम पागल तो नहीं हो...!"
प्रतिभा विस्मय से चीख उठी।
"नहीं"
"फिर... ये सब क्या है?"
"वक्त बदल रहा है प्रतिभा... मैं भी देखना चाहता हूं मीठी चाय के आदी इंसान को नमक का घोल कैसा लगता है...!"
प्रतिभा हतप्रभ सी उसके चेहरे को ताकती रही। बहुत कुछ था जो चेहरे पर चस्पा था।
उसने जेब टटोली। पांच का सिक्का निकाला और ढाबे वाले को पकड़ा दिया।
"चलता हूं अब... कोलकाता मुबारक हो तुम्हें।"
"अभी हफ्ते भर हूं... हम मिल सकते हैं।"
उसने प्रतिभा के चेहरे को बड़े गौर से देखा। खोखली सी मुस्कुराहट होंठो पर तैर गयी...। आंखों में नमी उतरने ही वाली थी... वो झटके से मुड़ा और आगे बढ़ गया। प्रतिभा के शब्द उसके कानों की पहुंच से बहुत दूर ही छूट गये थे।
~साभार: नज़्म सुभाष
~संकलन व संपादन: धर्मेन्द्र 'गूगल'
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